स्व-बनिया आंदोलन

क्या रसोई की छोटी-मोटी ज़रूरियात के लिए आप वाहन से इतनी दूर पधारेंगे?

देशीय व्यवसायों के स्वार्थ की रक्षा के नाम पर पिछले कई सालों से जगह-जगह एक पाखण्ड का मंचन हो रहा है। दावा यह है कि यह स्वदेशी जागरण या आंदोलन है। परन्तु इन मंचों पर एकत्र वक्ताओं और नीचे जुटे श्रोताओं पर एक नज़र दौड़ाइए तो यह स्वदेशी नहीं बल्कि स्व-बनिया अभियान सा प्रतीत होता है। बोलने वाले दुकानदार, सुनने वाले भी दुकानदार; या फिर ऐसी राजनैतिक पार्टी के लोग जो पार्टी मूलतः इन्हीं दुकानदारों के चंदे से चलती है। प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी इस मामले में कितना पाखण्डी है यह इस रपट (http://m.indianexpress.com/story_mobile.php?storyid=882221) से जानिये। वैसे आज भारतीय जनता पार्टी विपक्ष की भूमिका उसी प्रकार निभा रही है जैसे सन् २००२ ई० में कांग्रेस ने निभाई थी। उस वर्ष १६ दिसंबर को आज की सत्तारूढ़ पार्टी ने मुख्य प्रतिपक्ष के नाते संसद में कैसी शंका जताई थी यह इन उद्धृतियों (http://www.indiankanoon.org/doc/1378142/) से जानिये।

इस मामले में सरकार का यदि कोई दोष है तो वह राजनैतिक है, अर्थनैतिक नहीं। जैसे — क्या अल्पमत में आ चुकी सरकार को ऐसे निर्णय लेने का अधिकार है? क्या विदेशी निवेश को सरकार चलाने वाली कांग्रेस पार्टी सही में समाधान मानती है या बिगड़ी हुई अर्थव्यवस्था या स्टैंडर्ड एंड पुअर्स' जैसी संस्थाओं के दबाव में आकर यह निर्णय लिया गया है? अगला चुनाव हार जाने की स्थिति में क्या कांग्रेस को विदेशी निवेश के मुद्दे पर अड़े रहने का अफ़सोस और मलाल न होगा जिस प्रकार सन् २००४ ई० से आज तक यह पार्टी पी०वी० नरसिंह राव की विरासत से अपना पल्ला झाडती रही है और सन् १९९१-९६ ई० के शासनकाल को अपनी ग़लती मानती रही है? प्रशासनिक दृष्टि से यह सवाल उठाया जा सकता है कि अलग-अलग देशों में स्थित हमारे दूतावासों का भारतीय व्यवसाय के स्वार्थ को आगे बढ़ाने के लिए उपयोग क्यों नहीं किया जाता? और जब अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा यहाँ भीख की कटोरी लेकर आये थे यह गिड़गिड़ाते हुए कि उनके देश में हमारे व्यापारी नौकरियाँ पैदा करें तब उनकी बाँह इसके लिए क्यों नहीं मरोड़ी गई कि अगर उन्हें हमपर यह शर्त थोपना है कि हम अपने खुदरा व्यापार को उनके व्यापारियों के लिए खोल दें तो वे भी अपना बाज़ार हमारे लिए खोलें और अपने खाद्यान्न से subsidy (सरकारी सहायकी मूल्य) हटा दें? यह पूछना कि क्या यह निर्णय विदेशी सरकारों और व्यापारियों से रिश्वत लेकर लिया गया है दायित्वहीन होगा, इसलिए प्रमाण के अभाव में इस सवाल को रहने देते हैं।

अब वापस आते हैं स्वदेशी वालों के चोंचलों पर। इनके जुलूसों और इनकी सभाओं में कहीं इक्का-दुक्का उपभोक्ता नज़र ही नहीं आता। ऐसे में क्या यह निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा कि ये पैंतरे अमूमन ५ करोड़ व्यवसायियों और उनके क़रीब १० करोड़ कर्मचारियों और बिचौलियों के — यानी कुल १५ करोड़ लोगों के — हितार्थ हैं? अर्थात् बाक़ी १०५ करोड़ की जनसंख्या के हितार्थ नहीं? अगर उनके हितार्थ होता तो क्या वे इन प्रदर्शनों में भागीदारी नहीं करते?

और अगर विदेशियों से इतना भय है तो भाजपा बीमा क्षेत्र में विदेशी पूँजीनिवेश का समर्थन क्यों कर रही है? क्योंकि बीमा के व्यापारी और दलाल इनके वोट बैंक नहीं हैं!

चलिए बारी-बारी ये व्यवसायी जो देशप्रेम की दुहाई दे रहे हैं और जिन आशंकाओं को भय में परिवर्तित करने की कोशिश कर रहे हैं उनकी जाँच की जाए।


क्या  अंतर्राष्ट्रीय फुटकर व खुदरा व्यवसायियों के आने से हमारी सदियों पुरानी परचून की दुकानें बंद हो जायेंगी?
क्या इन्हें अपने कार्यकाल में लिए गए निर्णय याद नहीं?
इसकी संभावना नगण्य है। जो छोटे-मोटे फुटकर व्यवसायी हैं उन्हें प्रत्यक्ष विदेशी पूँजीनिवेश से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। क्योंकि वॉल-मार्ट या कार्फ़ूर न्यूनतम स्थान ग्रहण कर छोटे स्तर पर व्यापार कर ही नहीं सकते। उन्हें तो ५,०००-१०,००० वर्ग फ़ीट जितनी जगह चाहिए अपनी एक-एक दुकान चलाने के लिए, और वो दुकानें आपके घरों के नज़दीक बस ही नहीं सकतीं। वहाँ पहुँचने के लिए आपको गाड़ी लेकर दूर बाज़ार जाना होगा और पार्किंग के लिए जगह ढूंढनी पड़ेगी। ज़ाहिर है ऐसा एक आम उपभोक्ता तभी करेगा जब उसे महीने भर का सामान ख़रीदना हो। रोज़मर्रा के राशन — मसलन् १०० ग्रा० जीरा या ५० ग्रा० हल्दी — के लिए आप पड़ोस के गुप्ता स्टोर या अग्रवाल स्टोर के ही द्वारस्थ होंगे।

मालूम होता है कि इस 'स्वदेशी' आंदोलन नामक ढकोसले के पीछे रिलायंस जैसे रिटेलरों का पैसा लगा हुआ है जिन्होंने जब कई साल पहले अपना धंधा शुरू किया था तो इन 'स्वदेशी' वालों ने "चूँ" तक नहीं की थी जब कि Reliance Fresh जैसी दुकानें भी बाज़ार के उन्हीं सूत्रों पर काम करती हैं जिन पर विदेश के बड़े-बड़े खुदरा व फुटकर विक्रेता। वॉल-मार्ट, कार्फ़ूर, टेस्को वगैरह का मुक़ाबला अम्बानी जैसों से है न कि किसी गुप्ता, गोयल, अग्रवाल या रस्तोगी से। हमारे बनिये इतनी छोटी परिधि में काम करते हैं कि उस स्तर पर अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी उतर ही नहीं सकते।


क्या हम १० करोड़ खुदरा क्षेत्र के बिचौलियों और उनके स्वजनों के प्रति उदासीन हो जाएँ?
नहीं। बीमा क्षेत्र में देखा गया है कि विदेशी कंपनियों के आते ही भारतीय जीवन बीमा निगम (Life Insurance Corporation of India या  LIC) के एजेंट्स ने दूसरी एजेंसियाँ भी ले लीं और आज वे LIC के साथ-साथ ICICI Lombard, Max New York Life, Aviva, IFFCO-Tokio, Future Generali, Tata, AIG आदि की दलाली भी करते हैं। कोई दलाल इतना बेवक़ूफ़ नहीं होता कि बदलती आबोहवा के मुताबिक़ अपने व्यवसाय को ढाल न सके।

जहाँ तक कर्मचारियों का सवाल है, बड़ी दुकानों में बेहतर तनख़ाह और भत्ता से जब वे आकर्षित होंगे तब हमारे लालाजी को भी उन्हें रोके रखने के लिए अधिक तनख़ाह देनी पड़ेगी और भत्ता भी देना पड़ जाएगा।



बड़ी दुकानों में लाल, पीली, नीली वर्दी में काम करने वाले लड़के-लड़कियों को देख अर्थव्यवस्था की अच्छी हालत की भ्रामक धारणा पैदा होती है!
क्या आप बनिये की दुकानों में काम करने वाले, बस्तियों में रहने वाले बच्चों की दयनीय स्थिति से चिंतित नहीं? चूँकि बड़ी दुकानों में रसीद बनाने का काम हर कर्मचारी को करना पड़ता है, इन लड़कों और लड़कियों को कंप्यूटर चलाने की न्यूनतम शिक्षा तो मिल ही जायेगी। और जब बेहतर सुविधाओं को देख छोटी दुकानों में कार्यरत लड़के नौकरी छोड़ने की धमकी देंगे तब बनियों को भी उनका वेतन बढ़ाना होगा, साथ-साथ अन्य सुविधाएँ भी।

इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में अधिप्राप्ति (procurement) की दुकानों, छोटे नगरों में शीतल परिवहन (cold transport) एवं बड़े शहरों में शीतागारों (cold storages) में नई-नई नौकरियाँ पैदा होंगी।



एक बार विदेशियों का हमारे बाज़ार पर एकाधिकार स्थापित हो गया फिर तो वे हमसे मुँहमाँगे दाम वसूलेंगे!
इस लेख की भूमिका से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि बड़ी-बड़ी विदेशी कंपनियों द्वारा यहाँ एकाधिकार स्थापित करना तो दूर, बाज़ार के एक बड़े हिस्से पर अपने पैर जमा पाना भी मुश्किल होगा। और जिस फॉर्मुले पर वे काम करते हैं उसका गणित कुछ इस प्रकार है —

खेतों से आप तक सामान सात स्तर के बिचौलियों से गुज़र कर पहुँचता है; हर बिचौलिया अपने स्तर का कमीशन खाता है जिससे सामान की क़ीमत की उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है। लेकिन ये चीज़ें आपको कितनी भी महंगी क्यों न मिले, किसानों को उन पैसों का एक बहुत ही छोटा अंश (१/३ या १/२०वें हिस्से तक) मिलता है। तो अगर कोई सीधे किसानों तक पहुँच, उनसे माल ख़रीद, बिना बिचौलियों के आप तक पहुँचा दे तो वह किसानों को उनके उत्पाद का अधिक मोल तो दे ही पायेगा, ऊपर से आपको भी वे पण्य द्रव्य सस्ते मिलेंगे।

ख़तरा इनको है, हमारे पड़ोसी गुप्ताजी को नहीं
एक उपभोक्ता के नज़रिए से देखें तो आपको इस बात से क्या आपत्ति है कि कोई विक्रेता बिचौलियों से माल न ख़रीद कर सीधे किसानों से ख़रीदे जिससे कि किसान को वो पैदावार का अधिक मोल दे सके और हमें भी माल सस्ता मिले? बिचौलियों के धंधे में मंदा न हो यह सुनिश्चित करना उपभोक्ताओं के हित में कैसे हो सकता है?

रिलायंस के सूत्रों का कहना है कि वे आज तक केवल चार स्तर के बिचौलियों से ही निजात पा सके हैं; तीन स्तर अभी भी बाक़ी हैं जिनकी दलाली के कारण सामान इतने सस्ते नहीं हो पा रहे जितने हो सकते हैं। उन्हें डर है कि वॉल-मार्ट जैसी कम्पनियाँ उन तीन स्तर के बिचौलियों को भी साफ़ कर देंगी जिससे उनके असबाब Reliance Fresh के सामान से भी सस्ते हो जायेंगे। अब अंदाज़ा लगाना आसान हो जाना चाहिए कि विदेशियों से असली ख़तरा किनको महसूस हो रहा है।

वैसे  विदेशी निवेश का फ़ायदा हमारे किसानों तक पहुँचे इसके लिए आवश्यक है कि विभिन्न राज्यों में लागू Agricultural Produce Market Committee (कृषि उत्पाद बाज़ार समिति) क़ानून में बदलाव लाये जाएँ ताकि किसानों को दलालों के हाथ ही माल बेचने की मजबूरी न हो। केन्द्र सरकार का इस विषय में कहना है कि केरल के अलावा अन्य कांग्रेस शासित राज्य और नॅशनल कान्फ़रेंस शासित जम्मू और कश्मीर इसके लिए तैयार हैं।

राज्यों से जैसी मिली-जुली प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं इससे एक लाभ यह होगा कि कुछ समय पश्चात यह स्पष्ट हो जाएगा कि FDI के विषय में आशान्वित राज्यों का पूर्वाभास सही था या आशंकित राज्यों का। जब हम इन दो तरह के राज्यों के परिणामों की तुलना कर पायेंगे तब जाकर इस बहस का निर्णायक अंत होगा।


वॉल-मार्ट जब अमरीकी और जर्मन किसानों का भला नहीं कर पाया तो हमारा क्या करेगा?
पहली बात तो यह कि यह अभिप्रचार है। वास्तव में अमरीका में छोटे व्यवसायी बड़े व्यवसायियों के बावजूद धड़ल्ले से धंधा कर रहे हैं और उनका प्रदर्शन कई बार बड़े व्यापारियों से बेहतर भी हो जाता है (http://smallbusiness.foxbusiness.com/marketing-sales/2012/07/19/small-retail-spending-grows-faster-than-us-retail-rate-survey-finds/)। जहाँ तक जर्मनी का सवाल है, वहाँ वॉल-मार्ट के आने की ख़बर मिलते ही स्थानीय व्यवसायियों ने अपने सामान की क़ीमतें इतनी गिरा दीं कि उससे मुकाबला करना विश्व के सबसे बड़े फुटकर व्यापारी के लिए संभव न था। वॉल-मार्ट को उस देश में मुँह की खानी पड़ी (http://www.iwim.uni-bremen.de/publikationen/pdf/w024.pdf)। फिर भी अगर आज जर्मनी में खाद्यान्न उगाने वालों को कोई ख़तरा महसूस होता है तो वह स्थानीय बड़े व्यवसायियों से न कि किसी विदेशी से (http://regionalfoodsolutions.com/2010/10/13/no-foothold-for-wal-mart-in-germany-but-local-food-still-loses/)

दूसरी बात — ये बार-बार केवल वॉल-मार्ट का नाम घुमा-फिरा कर क्यों लिया जाता है? इस व्यवसाय में कोई और खिलाड़ी नहीं है क्या? या इन 'स्वदेशी' वालों को उनके नाम नहीं मालूम? विदेशी निवेश के पक्ष में तर्क मुक़ाबले के पक्ष में तर्क हैं, किसी एक कम्पनी के पक्ष में नहीं। वॉल-मार्ट के साथ-साथ कार्फ़ूर, टेस्को, मेट्रो आदि तथा इस देश के अम्बानी, ए०वी० बिड़ला, टाटा, पिरामल, आर०पी०जी०, लैंडमार्क, पैंटलून आदि के बीच जितनी प्रतिस्पर्धा होगी, चीज़ों के दाम उतने कम होंगे।

यही तर्क आनुवांशिक रूप से परिवर्तित शस्य (genetically modified — GM — crop) पर भी लागू होता है। खुदरा क्षेत्र में वॉल-मार्ट की तरह यदि कृषि क्षेत्र में Monsanto जैसी बदनाम कम्पनी के हवाले हमारे सारे के सारे खेत कर दिए गए तो यह कम्पनी मनमानी तो करेगी ही। देशी हो या विदेशी, तमाम निजी कंपनियों पर प्रतिस्पर्धा की नकेल कसना ज़रूरी है। एकाधिकार लूटतंत्र का जन्मदाता है। निजी एकाधिकार हो तो आविष्कार और खोज बंद हो जाते हैं और एक व्यवसायी देश का तानाशाह राजा बन जाता है; सरकारी एकाधिकार हो तो सरकारी किरानी रिश्वत से मालामाल हो जाते हैं और अर्थव्यवस्था पर मंदी हावी हो जाती है — दोनों हाल में आम आदमी तो लुटता ही है। आम आदमी को चयन करने का मौक़ा मिले तभी उसे न्याय मिल पाता है।

प्राकृतिक संपदाओं का और ऐसे तमाम क्षेत्रों का जहाँ प्रतिस्पर्धा संभव नहीं है वहाँ निजीकरण नहीं होना चाहिए क्योंकि इन क्षेत्रों में फिर एक-एक कम्पनी का एकाधिकार स्थापित हो जाता है। लेकिन खुदरा व्यापार तो ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ प्रतियोगिता संभव न हो। फिर यहाँ हमारे गुप्ताओं और अग्रवालों का एकाधिकार क्यों?


विदेशी कंपनियां मुनाफ़ा विदेश ले जायेंगी। ऐसा हम होने नहीं देंगे।
अगर आपका यही विचार है तो जब संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा बाह्य स्रोत की सेवाओं (outsourcing) के ख़िलाफ़ अपने भाषणों में आग उगलते हैं तो आप विचलित क्यों हो जाते हैं? अगर आपको भारत के एक पैसे का भी विदेश जाना मंज़ूर नहीं तो बाहर के पैसे भी यहाँ क्यों आये? फिर तो ओ०एन०जी०सी०, टाटा मोटर्स व टाटा कम्युनिकेशन्स, विडियोकॉन, सुज़लॉन एनर्जी, ए०वी० अॅल्युमिनियम इत्यादि को विदेश-स्थित अपने कार्यालय बंद कर देने चाहिए!

विदेशी रिटेलर यहाँ आकर कम-अज़-कम केन्द्र और राज्य सरकारों को कर तो देंगे। फ़िलहाल तो देश के स्वार्थ की बात ऐसे स्थानीय बनिये कर रहे हैं जो हर सामान के विक्रय पर क्रेता के हाथ केवल एक कच्ची रसीद थमा देते हैं।

अतिरिक्त इसके हमारी एक और समस्या है जो किसी हद तक सुलझ जायेगी — विदेशी मुद्रा के जिस भंडार को देखकर हम समझते हैं कि सन् १९९१ ई० का Balance of Payment (भुगतान संतुलन) संकट हमेशा के लिए टल चुका है दरअस्ल उस धनराशि का अधिकांश प्रत्यक्ष (direct — FDI) नहीं बल्कि संस्थागत (institutional — FII) तौर पर इस देश में आया है जिसे किसी भी समय विदेशी निवेशक वापस ले सकते हैं। परन्तु खुदरा व्यापार में निवेश प्रत्यक्ष होने के कारण इसे मनमानी तरीक़े से वापस नहीं लिया जा सकता।


हमने  विदेशियों से कभी रसोई के सामान ख़रीदे नहीं। उनकी गुणवत्ता पर भरोसा कैसे करें?
क्या पड़ोस की दुकानों से ख़रीदे हुए सामान की गुणवत्ता से आप संतुष्ट हैं? हमने तो बचपन से यही दृश्य देखा कि बाज़ार से चावल-दाल ख़रीद कर लाने के बाद हमारी माताओं-बहनों को उनमें से कंकड़ छाँट-छाँट कर फेंकना पड़ता था, तब जा कर वे पकाने और खाने लायक़ बनते थे। खाने में मिलावट तब बंद हुआ जब ये सामान पैकेट में आने लगे।

उत्पाद की अधिक आयु के लिए विदेशी कम्पनियाँ शीतल वाहनों में अन्न लादकर खेतों से दुकानों तक लाती हैं और विक्रय होने तक शीतल गोदामों में रखती हैं। सामान वही होता है जो आप को पड़ोस के स्टोर से मिलेंगे या फ़ुटपाथ में सब्ज़ी बेचने वालों की रेढ़ी से। लेकिन शीतल प्रणाली के कारण उनके ताज़े होने की संभावना अधिक है।


ये विदेशी सामान भी विदेश से मंगवाएंगे और इसलिए हमारे किसानों के लाभ होने का सवाल ही नहीं है।
यह  उनकी मूर्खता होगी। बाहर से द्रव्य लिवाने में परिवहन पर इतनी लागत आयेगी कि उनके मूल्य प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पायेंगे। ऐसे एकाध ही देश हैं जहाँ के माल गुणवत्ता की जांच न होने के कारण और वहाँ की सरकारों की अनैतिक योजनाओं के कारण परिवहन लागत और आयात शुल्क लगने के बावजूद सस्ते मिलते हैं। इन सन्देहास्पद देशों में अग्रणी है चीन।

पर क्या खुदरा व फुटकर व्यवसाय में आज तक FDI के न होने से चीनी मूल के घटिया माल हमारे देश की दुकानों में उपलब्ध नही हो रहे? अगर हो रहे हैं तो अपनी दुकानों में चीनी माल रखने वाले हमारे देशी दुकानदार देशभक्त कैसे कहलाये जा सकते हैं? और विदेशी निवेशकों के आ जाने से कौन सा चीनी पहाड़ टूट पड़ेगा जो अब तक नहीं टूटा?

फिर  भी भारतीय स्वार्थ की रक्षा के लिए सरकार को चाहिए कि वह विदेशी रिटेलरों पर यह पाबंदी लगा दे कि उनमें से कोई भी ५,००० वर्ग फ़ीट से कम क्षेत्र में दुकान न लगा सके। इसके अलावा शर्त यह हो कि ३०% के बजाय ७०% माल इन विदेशियों को भारत से ही मंगवाने पड़े। और इसका हिसाब ये बड़ी रिटेल कम्पनियाँ पाँच वर्ष में एक बार नहीं बल्कि प्रति वर्ष सरकार को दें

फ़िलहाल देश के स्वार्थ में इतनी व्यवस्था सरकार ने कर रखी है (http://pib.nic.in/newsite/erelease.aspx?relid=87768) कि विदेशी खुदरा व्यापारियों को निवेश करने के ३ साल के अंदर-अंदर कम से कम ५०% निवेश सहायक आधारभूत व्यवस्थाओं (backend infrastructure) में अर्थात् गाँवों में करना होगा। इसके अलावा १० लाख से कम आबादी वाले शहरों में इन विदेशियों को दुकान लगाने की अनुमति नहीं होगी।


अर्थात् आप कहना चाहते हैं कि ये विदेशी बनिये दया, दान, पुण्य और सेवा की प्रतिमूर्ति हैं?
जी नहीं। ये कंपनियां अपने मुनाफ़े के लिए ही ये सुविधाएँ मुहय्या कराएँगी। परन्तु उनसे प्रतिस्पर्धा में टिके रहने के लिए स्वदेशी व्यापारियों को भी शीतागार जैसी व्यवस्थाएँ बनवानी पड़ेंगी और अंततोगत्वा इससे आधारभूत सुविधाओं का ढाँचा देश भर में खड़ा हो जाएगा। सभी आर्थिक मामलों के जानकार यह मानते हैं कि भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India) के पास इस ढाँचे को बनाने के लिए पर्याप्त धनराशि नहीं है; फलस्वरूप हज़ारों मेट्रिक टन के खाद्यान्न खुले मैदानों में पड़े-पड़े सड़ जाते हैं और देश को करोड़ों रुपये का नुक़सान हर साल उठाना पड़ता है।


आपके तर्कों से दलाली की बू आती है! वॉल-मार्ट से कितने पैसे खाए हैं आपने?
ये ऐसे ही बने रहेंगे। इन्हें कोई नहीं हटा सकता
जब वितर्क में प्रतिपक्ष के सारे ठोस व विधिमान्य तर्क समाप्त हो चुके होंगे तब आप पर इस तरह के आक्षेप लगाए जायेंगे। इसका जवाब आप इस प्रकार दें —

अगर आप अम्बानी परिवार के दलाल नहीं तो मैं भी वॉलटन परिवार का दलाल नहीं। उपर्युक्त सारी अच्छी व्यवस्थाएँ कोई भारतीय व्यवसायी सुनिश्चित कर दे तो इसमें कोई हर्ज नहीं। मुझे ऐसे में विदेशी व्यापारियों में कोई दिलचस्पी नहीं होगी। लेकिन कोई भारतीय व्यवसायी ऐसा करता क्यों नहीं?

स्वदेशी आंदोलन दरअस्ल स्व-बनिया आंदोलन है   — इस देश के बनियों का बिना प्रतिस्पर्धा के हमें लूटते रहने के विशेषाधिकार की मांग। ये घटिया माल हमारे सर मढ़ते रहें, अनुचित दाम लेकर हमारा जीना मुहाल कर दें और स्वदेशी के नाम पर हम यह अन्याय बर्दाश्त करते रहें, इन दुकानदारों का यही अभिप्राय है।


इस विषय पर आम जनता की क्या राय है?
पता नहीं। उनसे किसी ने अब तक पूछा नहीं। जंतर मंतर इत्यादि जगहों पर शोर मचाने वाले प्रदर्शनकारी समाज के बनिया-वर्ग से जुड़े हुए हैं। मुश्किल यह है कि विश्व के सभी देशों में यह वर्ग संगठित है जब कि उपभोक्ता कहीं भी संगठित नहीं; उनका प्रतिनिधित्व करने वाला कोई राजनैतिक मंच है ही नहीं। परन्तु उनकी राय इस विषय पर क्या हो सकती है यह समझने के लिए ८० के दशक की आर्थिक अवस्था को याद कीजिए।

उस ज़माने में कई अर्ध-सरकारी टेलिविज़न बनाने वाली कम्पनियाँ हुआ करती थीं — केन्द्र सरकार की EC, उत्तर प्रदेश सरकार की Uptron, पश्चिम बंगाल सरकार की Webel, तमिलनाडु सरकार की Salora इत्यादि। उन्हीं दिनों इसी क्षेत्र में एक देशी निजी कंपनी भी व्यवसाय में थी जिसके ब्रांड का नाम था Dyanora. इसके प्रचार का नारा था "Be Indian. Buy Indian"!

केन्द्र सरकार की छवि आज जितनी धूमिल न थी। इसलिए EC-TV अस्पष्ट तस्वीरों और गैर-टिकाऊ बटन्स के बावजूद थोड़ी-बहुत बिक ही जाती थी। परन्तु न तो यू०पी० में Uptron को अधिक क्रेता मिलते थे, न बंगाल में Webel को और न ही तमिलनाडु में Salora को। और "Indian" होने का दम भरने वाली Dyanora तो बिकती ही नहीं थी। हर तरफ़ Telerama, Weston, Texla, Philips और Oscar का बोलबाला था। देशभक्ति के नाम पर घटिया माल कोई नहीं ख़रीदता।

तथाकथित देशभक्त बनिये हमें विदेशी आक्रमण या अतिक्रमण का हव्वा न दिखा कर अपने सामान की गुणवत्ता और आपूर्ति पर ध्यान दें तो विदेशी कम्पनियाँ ऐसे ही प्रतिस्पर्धा में टिक नहीं पाएंगी। वर्ना अगर FDI के सवाल पर जनमत-संग्रह (referendum) का आयोजन किया गया तो वोट से पहले तीन महीनों के अंतराल में जब ये बातें आम जनता को समझाई जायेंगी तो १५ करोड़ विक्रेता और बिचौलिए १०५ करोड़ किसानों और क्रेताओं के सामने आंधी में तिनके की तरह उड़ जायेंगे!


[इस लेख में "बनिया" शब्द से लेखक का अभिप्राय कोई जाति-विशेष नहीं है, बल्कि यहाँ धनगत लाभ-हानि की मनोवृत्ति रखने वालों और ऐसे पेशों से ताल्लुक़ रखने वालों की तरफ़ इशारा है — जो विदेशों में भी हो सकते हैं जहाँ जातिप्रथा है ही नहीं]

Comments

Ankit Tak @ardra2611 said…
I am here

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