प्रतिबिम्ब

की युवा पीढ़ी एक तरफ़ तो अल्हड़ लगती है और दूसरी तरफ़ संजीदा भी । यदि उन में राजनीति की समझ या उसके प्रति रुझान कम है तो विभिन्न तकनीकी विषयों में उन का ज्ञान हमें अक्सर मंत्रमुग्ध भी कर देता है । अतः उन पर कोई अन्तिम टिप्पणी करने से पहले उन के जीवन के अन्य पहलुओं की जांच कर लेनी चाहिए । यदि युवा वर्ग राजनैतिक विचार-विमर्ष में अपरिपक्व है तो इसके लिए न सिर्फ़ युगों तक की मलिन राजनीति ज़िम्मेदार है , बल्कि पिछले दशक में हुए पत्रकारिता के स्तर में पतन का भी दोष कुछ कम नहीं । पर पत्रकारों की ज़िम्मेदारी कहाँ तक है ? क्या प्रसार माध्यम बाज़ार के नियमों से परे काम कर सकता है ? बाज़ार तो यही कहेगा कि जो बिकता है वही बेचो ।

पिछले दो सालों में कंप्यूटर पर सामाजिक मेल-मिलाप के लिए बने वेबसाइट orkut पर राजनैतिक चर्चा करते हुए मैंने पाया कि अधिकतर युवक व युवतियाँ विशेषतः टीवी पर पत्रकारिता के नाम पर होते हुए तमाशे से काफ़ी नाराज़ हैं । पूछने पर पता चला कि जहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुयायी NDTV और CNN-IBN से असंतुष्ट हैं क्योंकि उनके अनुसार ये चैनल नक़ली धर्म-निरपेक्षता के प्रसार वाहक हैं , वहीं अधिकांश 'बच्चे' आज तक , Zee News और ख़ास कर India TV से इतने नाराज़ हैं कि वे इन चैनलों के मालिकों पर गालियाँ बरसाने से भी नहीं सकुचाते । तो फिर उनसे एक प्रश्न करना लाज़मी हो जाता है : "भई , जब आप को ये चैनल पसंद ही नहीं तो देखते क्यों हैं ?" ( स्पष्ट है , यदि वे इन चैनलों को नहीं देखते तो उन्हें देखकर अपना सर दीवार पर भी न दे मारते ) जवाब यह मिलता है कि "देखें तो क्या देखें ?" "We don't have a choice ( हमारे पास विकल्प नहीं है )!" और "सभी ( चैनल ) एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं ।"

पिछले साल orkut में एक ऐसे ही विवाद के दौरान किसी ने मुझसे कहा कि जिस रोज़ संजय दत्त को TADA कोर्ट ने जेल की सज़ा सुनाई , उस रोज़ सारा दिन सारे चैनल इसी ख़बर को प्रसारित करते रहे । यह बात झूठी तो नहीं पर अतिशयोक्ति अवश्य थी । तर्क को काटते हुए मैं ने उस रोज़ NDTV, Times Now एवं CNN-IBN द्वारा प्रसारित हुए कार्यक्रम की सूची पेश की जिससे कि यह पता चलता था कि जिस वक़्त इन में से किसी एक चैनल पर संजय दत्त की बात हो रही थी उसी वक़्त किसी दूसरे चैनल पर राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कोई ख़बर प्रसारित की जा रही थी । मैंने तर्क में शामिल विवादी पक्ष से पूछा कि अगर वे संजय दत्त के क़िस्से से ऊब चुके थे तो क्या वे remote से चैनल बदल नहीं सकते थे ? जवाब में चुप्पी के अलावा कुछ न मिला । फिर पता चला कि उनके अभियोग के पात्र आज तक , Zee News और India TV जैसे चैनल थे , अंग्रेजी माध्यम के चैनल नहीं । और उस दिन हिन्दी चैनलों में सारा दिन सिर्फ़ संजय दत्त ही छाए रहे ।

ऐसा प्रतीत होता है कि Times Now ये लोग नहीं देखते ; उसके बारे में न तो उनसे कोई स्तुति सुनने को मिलती है और न ही निंदा । उनके अनुसार NDTV वामपंथ का वाहक है और CNN-IBN बचकानी हरकतों का । इन दर्शकों का मनस्तत्व कुछ इस प्रकार है — वे नाराज़गी-पसंद इंसान हैं ; वे वही देखना चाहते हैं जिसे देखकर वे तिलमिला उठे और झुन्झलाने का , झल्लाने का उनको एक बहाना मिल जाए ! हर रोज़ ग़लत देखना और ग़लती की शिकायत करना — यही उनकी जीवनचर्या है ।

जैसा कि मैं ने शुरुआत में कहा कि ऐसे युवा अक्सर तकनीकी विषयों के जानकार होते हैं और ऐसे विषय राजनीति से काफ़ी अधिक उलझे हुए हैं । ऐसे में सारा दिन मशीनों के साथ उलझने के बाद उन्हें ख़ुश सिर्फ़ तमाशा ही कर सकता है ।

पर हिन्दी माध्यम के चैनलों और हिन्दी समाचार पत्रों के अधिकांश उपभोक्ता इंटरनेट जैसे माध्यम से अब भी अछूते हैं । जीवन में एक छोटे से नगर से शहर तक की मेरी यात्रा में कई ऐसे लंबे पड़ाव आए जब समाज के उस वर्ग ( जिसे आजकल राजनैतिक लोगों ने 'आम आदमी' का एक विशेष दर्जा दिया हुआ है ) के साथ मेरा उठना-बैठना रहा । उन में मैं ने उपर्युक्त मानसिक विकृति तो नहीं देखी , पर वाक़'ई उन्हें 'चटपटी' ख़बर की लत लगी हुई थी ।

जहाँ हम प्रधानमंत्री की कोई टिप्पणी , भारत की किसी क्षेत्र में कोई सफलता या विफलता , विज्ञान जगत में कोई आविष्कार इत्यादि बातों की चर्चा करते हैं वहीं वे लोग ऎसी बातों में रूचि रखते हैं जैसे कि कहीं किसी औरत का बलात्कार हो गया , किसी इंसान का क़त्ल हो गया या और कुछ नहीं तो पड़ोस की कोई लड़की किसी लड़के के संग भाग गई ! हमारे चेहरों को देखकर उन्हें यह अनुमान तो अवश्य हो जाता है कि ऎसी बातें करके वे हमारी नज़रों में लगातार गिरते जा रहे हैं पर हमारे दर्शन के अनुरूप वे कभी अपनी पसंद-नापसंद बदलते नहीं । समाचार पत्र एवं टीवी चैनल पाठकवर्ग या दर्शकगण को नाराज़ नहीं कर सकते , इसलिए वे ऎसी बातें लिखते नहीं या कैमरा के सामने कहते नहीं , पर सच्चाई तो यही है कि आप किसी भी पान या चाय की दुकान के सामने या किसी नाई की दुकान के अन्दर बैठ जाइए तो आपको लोग अख़बार में ऎसी ही ख़बरें पढ़ते या ढूँढते हुए नज़र आयेंगे ।

पाश्चात्य में भी दुर्घटना-सम्बन्धित ख़बरों की अच्छी बिक्री होती है । राजकुमारी डायना कि दुर्घटनाजनक मृत्यु का उदाहरण ही ले लीजिए — इस घटना को घटे को आज एक दशक से अधिक समय का अंतराल बीत गया है परन्तु आज भी उस राजकुमारी की प्रेतात्मा मानो गोरों को परेशान कर रही है !

मनोरोग विशेषज्ञों का कहना है कि आप को ऎसी खबरें अच्छी लगती हैं क्योंकि किसी और पर बीती हुई बात आप को यह अहसास दिलाती है कि आप उनसे अधिक भाग्यवान हैं और वे हादसे आपके साथ नहीं घटे । अतः ‘मसालेदार’ ख़बर आपके तुलनात्मक सुखी जीवन के मापदंड के समान है । जैसे किसी लाचार प्रौढ़ को देख अपने यौवन का महत्व समझ में आता है वैसे ही किसी लुटे हुए इंसान को देख आप ख़ुद से यह कहते हैं कि आपके पास जीने के अभी और सामान बाक़ी हैं ; आप टीवी पर दिखने वाली वह धर्षित महिला या मृतक के स्वजन जैसे अभागी नहीं ! यदि आप को दुर्घटनाओं में 'ख़बर' नज़र आती है तो मैं यह अनुमान लगा सकता हूँ कि जब आप टीवी के सामने नहीं होते , बल्कि सड़क पर होते हैं तो बाज़ार में किन्ही दो लोगों को लड़ते हुए , मारपीट करते हुए देखकर दो घड़ी अवश्य ठहर जाते होंगे , भले ही उन दोनों को रोकने की या किसी प्रकार से मदद करने की कोशिश आप बिल्कुल न करें !

बहरहाल , अगर आपको कोई ख़बर चटपटी बनानी है तो ज़रूरी नहीं कि वह ख़बर झूठी हो या उसके विश्लेषण में संतुलन का अभाव हो । पर संतुलन का अभाव हर निजी हिन्दी चैनल में देखने को मिलता है और दूरदर्शन में राजनैतिक निष्पक्षता एवं प्रस्तुति का गुणात्मक मान दोनों की कमी हर दर्शक को खलती है । अतः युवा वर्ग की शिकायत कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है अपनी जगह सही है । Zee News, Star News और India TV की तमाम "सनसनी ख़ेज़ " कहानियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की चर्चा जान-बूझ कर नहीं की जाती । जब Zee News भूत-पिशाच की कहानियाँ सुनाता है तो अंत में उसे यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए कि विज्ञान के अनुसार तथाकथित भूत का दर्शन नज़र का धोखा हो सकता है । न जाने इस चैनल के किसी कार्य निदेशक ने Mysteries of the Unknown (Time Life द्वारा प्रकाशित पृथ्वी में घटे विभिन्न चमत्कारों का संकलन ) पढ़ा है या नहीं... अगर पढ़ा होता तो उन्हें पता होता की किसी कहानी की रोचकता को बिल्कुल कम न करते हुए भी आप उसका वैज्ञानिक विश्लेषण कर सकते हैं । जहाँ तक Star News का सवाल है , वह कुछ और न करे तो कम से कम "सनसनी" नामक कार्यक्रम के प्रस्तुतकर्ता को तो बदल ही सकता है ; ऐसा तो न लगे कि पूरे कार्यक्रम में सबसे अधिक संदेहास्पद चरित्र वह प्रस्तुतकर्ता ही है । और India TV वालों को क्या कहें ? जो यह समझते हैं कि किसी गाँव में किसी व्यक्ति का ५० समोसे एक ही बार में खा जाना राष्ट्रीय समाचार है , ऐसे लोग कुछ कहने सुनने के परे हैं । उनकी चिकित्सा कोई मनोरोग विशेषज्ञ ही कर सकता है !

अगला सवाल भाषा का है । आज तक विभिन्न चैनलों को चिट्ठी के द्वारा मैं यह समझाते समझाते थक गया कि "ख़ुलासा" शब्द का क्रिया "खुलना" के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । अर्थात "ख़ुलासा" करने का अर्थ "खुल कर कहना" नहीं है । अरबी के अक्षर 'ख़े' ( ﺥ ) से बना , उसी भाषा के इस शब्द का अर्थ है "सार" । तो फिर जब आप किसी तथ्य का ख़ुलासा करते हैं तो वह "सनसनी-ख़ेज़" कैसे हो सकता है ? कोई कहानी रोमांचक हो सकती है , पर क्या आपने कभी सुना है कि किसी कहानी का सारांश रोमांचक है ?

दर-अस्ल यह भ्रमित धारणा उर्दू का ज्ञान न होने की वजह से है । उर्दू वर्णलिपि में 'ख' जैसा कोई अक्षर होता ही नहीं ; 'क' ( ‘काफ़’ ) और 'ह' ( ‘दो-चश्मी हे’ ) के संधि से 'ख' बनता है (ک+ﻬ=ﮐﮭ) [ 'ख़े' और 'ख' के उच्चारण भी भिन्न हैं ; जैसे , "ख़ुदा" (ﺧﺩﺍ) = ईश्वर , खुदा (ﮐﮭﺩﺍ) = खोदा हुआ ] अपितु ख़ुलासा अक्षर ख़े से बनता है (ﺧﻼﺻﮧ) , 'क' और 'ह' के संधि से नहीं । अतः इस शब्द का हिन्दी की क्रिया खुलना के साथ कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता ।

जहाँ तक मुझे याद आता है १९९९ में संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान में भाजपा की सरकार को एक मत से हराने से पूर्व अपने भाषण में बसपा की नेत्री मायावती ने कहा था , "मैं अपनी रणनीति का ख़ुलासा नहीं करूंगी ... !" इतना तो ज़ाहिर है कि मायावती का मतलब यह नहीं था कि "मैं अपनी रणनीति को संक्षिप्त नहीं करूंगी !" इससे पहले तो हम समाचार में यही सुना करते थे कि किसी ने कोई बात कही या बतलाई , कुछ ज़ाहिर किया ; किसी छुपी हुई बात को प्रकाशित , प्रकट या उजागर किया या कठिन या पेचीदा किसी बात को स्पष्ट किया या उसको सरल बनाया ( उसे सरलीकृत किया ) । न जाने उस दिन के बाद से अचानक लोग अपनी बात का "ख़ुलासा" क्यों करने लगे !

इस मामले में मुश्किल यह है कि अगर पत्रकार और पाठक/दर्शक दोनों अज्ञानी हो तो यही बात सामने आएगी कि किसी नए पहलू पर रोशनी डाली गई है । पर अगर कोई श्रोता यह जानता है कि "ख़ुलासा" का अर्थ "संक्षेप" है और किसी वाक्य में उस शब्द के दोनों अर्थ हो सकते हैं — "स्पष्टीकरण" भी और "सारांश" भी — तो वह उस ख़बर का क्या मतलब निकाले ?

पर जिन्हें देशज ध्वनि ‘फ’ ( हिन्दी का २२वाँ व्यञ्जन वर्ण ; उर्दू में ‘पे’ + ‘दो-चश्मी हे’ = پ + ﻬ = ﭘﮭ ) और विदेशज ध्वनि ‘फ़’ [ संस्कृत में ऐसी कोई ध्वनि नहीं होती और न ही इस देश में बने किसी शब्द में ; अरबी/फ़ारसी में इसे यूँ ( ف ) लिखते हैं ] में अन्तर तक का ज्ञान न हो — चंद anchor “फिर” को “फ़िर” कहते हैं और चंद “फ़साना” ( कहानी ) को “फसाना” — उन्हें आप ‘ग’ ( गाफ़/گ ) और ‘ग़’ ( ग़ैन/ﻍ ) या ‘ख’ और ‘ख़’ के बीच का अन्तर समझाएँगे भी तो कैसे ?

उर्दू का ज्ञान छोड़िए , हैरानी तो यह देखकर होती है कि आजकल के चंद कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ताओं को "ऐसा" और "ऐसे" की तमीज़ भी नहीं है । जब उनको कहना होता है कि "आप ऐसा कैसे कह सकते हैं ?" (how could you say this? — emphasis on the content of the interviewee's speech) ," वे कहते हैं ," आप ऐसे कैसे कह सकते हैं ?" (how could you speak in this manner? — emphasis on the interviewee's style of speech delivery) !

ख़ैर , भाषा के स्तर में गिरावट का पूर्ण विश्लेषण हम कहीं और करेंगे । अब वापस रुचि की बात की जाए । अलबत्ता यह सच है कि भाषा का पतन रुचि में हुए पतन का परिचायक है । शायद यह "सब कुछ चलता है" का ज़माना है । ग़रज़ कि प्रसार माध्यम एक आईना है ; इसमें आपको वही चेहरा दिखेगा जो आप का होगा । राजनेताओं की तरह पत्रकार भी हमारे इसी समाज का एक अंग हैं । चाहे चर्चित विषय की गहराई हो या उस में प्रयुक्त भाषा की , समाज में भी ये दो चीज़ें कुछ ख़ुशरंग नज़र नहीं आते ।

अगर आप भी ऐसे ही हैं तो फिर पत्रकारों पर इतना ग़ुस्सा क्यों ?

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